इन तस्वीरों में गोल घेरे वाले चेहरों को देखिये...नरसंहार पर 'संवेदना' जता रहे हैं, फिर भी मुस्करा रहे हैं

इन तस्वीरों में गोल घेरे वाले चेहरों को देखिये...नरसंहार पर 'संवेदना' जता रहे हैं, फिर भी मुस्करा रहे हैं

कुछ तो शर्म करो...ये पांच रुपये की मोमबत्ती संवेदना का प्रतीक है, इसे जला रहे हो या 'इंसानियत'

पहलगाम नरसंहार के बाद सक्रिय हुआ मोमबत्ती वर्ग...क्या इनमें मरने वालों के प्रति संवेदना वास्तविक है

किसी के दुख दर्द से नहीं मतलब, बस अखबारों और सोशल मीडिया पर फोटो आ जाए

सब की बात न्यूज बात कड़ती है, लेकिन सच है। कभी किसी मासूम बेटी की अस्मिता को रौंद दिया जाए या फिर कहीं निर्दाेष नागरिक आतंक का शिकार हो जाएं तो ऐसी त्रासदियों के तुरंत बाद एक खास तबका सामने आता है। हाथ में पांच-दस रुपये की मोमबत्तियां लिए, चेहरे पर गंभीरता का मुखौटा चढ़ाए, जैसे मानो किसी ऐसी ही घटना के बाद मोमबत्ती जलाने का इंतज़ार कर रहा हो। हर बार एक ही दृश्य दोहराया जाता है। हाथों में मोमबत्तियां, कैमरों के सामने खड़ी भीड़, और चेहरों पर संवेदना का छदम आवरण। 


इनके हाथ में जब मोमबत्ती होती है तो करुणा इनके चेहरों पर ऐसे हिलोरें मार रही होती है, मानों संवेदनाओं का सुनामी इनके भीतर ही उबल रहा हो। लेकिन इस मोमबत्ती वर्ग में भी कुछ ऐसे 'बेशर्म' होते हैं जो ऐसे समय में 'नौटंकी' भी ढंग से नहीं कर पाते। उनके चेहरे पर मुस्कान होती है, और हाथ में मोमबत्ती।


ताजा मामला कश्मीर के पहलगाम में हुए भयावह नरसंहार का है। एक ही पल में 28 घरों की खुशियां उजड़ गईं। जिन परिवारों का इस हादसे से कोई सीधा संबंध नहीं था, उनके दिलों में भी कुछ पल को टीस जरूर उठी होगी। आखिर हम इंसान हैं और इंसान होने का मतलब ही है किसी अनजाने के दुख से भी दुखी हो जाना। लेकिन जब ऐसे क्रूर और हृदयविदारक क्षणों में कुछ चेहरे मुस्कराते हुए तस्वीरों में नजर आते हैं, तो लगता है कि इनका केवल शरीर इंसान है पर, आत्मा शायद मर चुकी है। 

अलग-अलग जगहों से ली गईं इन तस्वीरों में जो चेहरे गोल घेरे में दिख रहे हैं, क्या इनमें ज़रा सी भी पीड़ा, शोक या संवेदना झलक रही है?



अरे, मत बहाओ आंसू, मत जताओ दुख, मत रखो संवेदना....कौन कहता है कि जिन्हें जानते भी नहीं, उनकी मौत पर दुख जताना जरूरी है, लेकिन मानवता के दुश्मनों, बेहया लोगों....पांच रुपये की मोमबत्ती लेकर कम से कम हंसते हुए फोटो तो मत खिंचाओ, मुस्कराओ तो मत उन लोगों की मौत पर जो अपने परिवार के साथ खुशियों के चंद पल बिताने वहां गए थे, और पत्नी-बेटे के सामने ही मार दिए गए। किसी का गम नहीं बांट सकते तो खिल्ली भी मत उड़ाओ, केवल अखबारों और सोशल मीडिया में अपना फोटो खिंचाने के लिए किसी की मौत का तो मजाक मत बनाओ। 

दुख बांटना नहीं आता तो मत बांटो, लेकिन कम से कम शोक के क्षणों में ख़ामोशी, सम्मान और इंसानियत बनाए रखो, क्योंकि अगर हम संवेदना में भी अभिनय करने लगें, तो इंसानियत का अंत दूर नहीं।

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कौन है ये 'राक्षस'...क्या इसके यहां किसी की मौत नहीं होगी

सब की बात। इस फोटो ने उन लोगों को झकझोर कर रख दिया, जो मानवता के प्रति जरा सी भी संवेदना रखते हैं, लेकिन किसी राक्षस ने तो इसे भी मजाक बना डाला। हां...शायद राक्षस शब्द भी इस इंसान के लिए कम है जो इस तस्वीर का भी मजाक बना सकता है। इस इंसान के घर में तो शायद कभी किसी की मौत ही नहीं होगी। होगी, जरूर होगी....तब ये इंसान रोएगा और ऊपर वाला इस पर हंसेगा।

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(ये लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं। यदि कोई असहमत है तो वो उसका अपना 'मत' है।) 
(सहमत हो या असहमत, अपने विचार कमेंट में दे सकते हैं।  )

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    पूरा बदायूं का मीडिया इस मामले में चुप्पी साधे बैठा है। अरे बेगैरत पत्रकारों दारू खरीदकर पी लो। मुफ्त की लेकर ज्योति बाबू के खिलाफ लिख भी न पा रए तो डूब जाओ चुलू भर पानी में। अमर उजाला दैनिक जागरण और हिंदुस्तान के रिपोर्टर बिकाऊ है। दारू के एक quater में बिक जाते है। पोर्टल वाले वैसे तो हगने मूतने की खबर तक चला देते है, लेकीन यहां किसी की हिम्मत नहीं हो रहे। साले बिकाऊ पत्रकार।

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