शहर निवासी डॉ. दीप्ति जोशी गुप्ता ने उपन्यास के माध्यम से बताया संस्कारों का महत्व
गुरुजी श्री श्री रविशंकर ने ऋषिकेश में किया उपन्यास का विमोचन
बदायूं। “यात्रा अंतर्मन की“...एक ऐसा उपन्यास, जिसे लिखने वाली महिला ने इसे लेखिका बनकर नहीं बल्कि एक मां बनकर लिखा है। एक बेटी के लिए मां द्वारा लिखी गई इस पुस्तक को यदि 'संस्कारों की पाठशाला' भी कहा जाए तो कोई अतिशियोक्ति नहीं होगी। इस उपन्यास को लिखने वाली हैं शहर की डॉ. दीप्ति जोशी गुप्ता। इस पुस्तक का आधार कोरोनाकालीन स्थितियां और परिस्थितियां हैं, जिनसे होकर हर व्यक्ति उन खास दिनों मे गुजरा है। इसी को लेकर उन्होंने इस उपन्यास का ताना-बाना बुना है। (नीचे और पढ़ें) -
डॉ. दीप्ति द्वारा लिखित इस उपन्यास “यात्रा अंतर्मन की“ का विमोचन सोमवार को गुरुजी श्री श्री रविशंकर द्वारा ऋषिकेश के आर्ट ऑफ़ लिविंग आश्रम में एक भव्य कार्यक्रम के अंतर्गत किया गया, जो पूरे देश के साथ बदायूं के लिए भी अत्यंत गौरव का विषय है।
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बोले गुरुजी- 'लेखिका बनकर नहीं मां बनकर की उपन्यास की रचना'
बदायूं। पुस्तक का विमोचन करने के बाद अपना आशीर्वाद प्रदान करते हुए रविशंकर जी ने कहा कि ’मेरे जीवन का उद्देश्य संपूर्ण विश्व में तनाव और हिंसामुक्त एक ऐसे समाज की स्थापना करना है, जहां लोगों में पारस्परिक वैमनस्यता न हो। एक ऐसा समाज जो सद-चित्त और सुंदर हो, एक ऐसा समाज जो चिंता मुक्त हो, जो विजय के लिए नहीं जीने के लिए आतुर हो। तो क्यों न हम सब मिलकर अपने बच्चों को और आने वाली पीढियों को कुछ ऐसे संस्कार और कुछ ऐसी दिशा दें, जिससे एक बार पुनः भारतवर्ष में एक नए स्वर्णिम युग का आरंभ हो। (नीचे और पढ़ें) -
उन्होंने कहा कि कलियुग में तो अब राम अवतार लेंगे नही हमें ख़ुद ही राम पैदा करने होंगे। एक ऐसे आदर्शवादी भारतीय समाज का पुनर्निर्माण हमें करना होगा जिससे भारत में ही नहीं संपूर्ण विश्व में शांति व अहिंसा की स्थापना हो जाए और उन्हें ऐसा प्रतीत होता है कि इन सब बातों का निचोड़ दीप्ति ने अपनी इस पुस्तक में बड़ी ईमानदारी से किया है। दीप्ति ने लेखिका बनकर नहीं एक आदर्श माँ बनकर इस किताब की रचना की है। (नीचे और पढ़ें) -
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लेखिका डॉ. दीप्ति बोलीं- 'बेटी वैभवी के लिए लिखा'
बदायूं। पुस्तक के बारे में दीप्ति ने बताया कि इस पुस्तक का आधार कोरोना कालीन स्थितियां और परिस्थितियां हैं उन्होंने इसको अपनी बेटी वैभवी के लिए लिखा है। एक आम गृहणी की आम बोलचाल की भाषा में लिखी यह पुस्तक साधारण होते हुए भी असाधारण है, जिसे पढ़ते समय भारतवर्ष के प्रत्येक निम्न-मध्यम-वर्ग के परिवार की हर मां यह महसूस कर सकती है कि वह अपनी मामूली सी जिंदगी के पन्ने उलट-पलटकर खुद अपनी ही कहानी पढ़ रही है। उन्होंने बताया कि प्रस्तुत उपन्यास की ज्यादातर बातें उन्होंने अपने निजी जीवन के अनुभवों से गुजरने के बाद ही अपनी बेटी को समझाने की कोशिश की है क्योंकि किसी को उदाहरण देना बहुत आसान काम होता है लेकिन बात तो तब है जब हम स्वयं उदाहरण बनकर अपने बच्चों के समक्ष प्रस्तुत हों। (नीचे और पढ़ें) -
वह कहती हैं कि वर्तमान समय में बच्चों के भीतर बाल्यावस्था में ही नैतिक मूल्यों का बीज बोना नितांत आवश्यक है। उन्हें खेल खेल में ही भारतीय जीवन मूल्यों की परिभाषा, भारतीय दर्शन, श्रीमद्भागवत गीता का ज्ञान, रामायण की महत्ता, उसकी उपयोगिता सिखाई जानी चाहिए। उन्होंने इस पुस्तक में छोटी-छोटी कहानियों के रूप में अपनी बेटी को समझाने की कोशिश की है और वह भी छोटी छोटी चिट्ठियों के माध्यम से। मैंने उसे शिक्षा दी है मानव के सबसे बड़े धर्म की जिसे हम मानवता कहते हैं .. और अंततः सिखाया है कि क्या होता है एक स्त्री होने का भाव! संक्षेप में कहे तो इस उपन्यास में वह हर एक छोटी-बड़ी बात का जिक्र किया है जो आज हमें अपने बच्चों को सिखानी चाहिए।