संडे स्टोरी-
बदायूं। शहर के मोहल्ला कबूलपुरा नई बस्ती स्थित चिमनी का रोजा इतिहास की वह अमूल्य धरोहर है, जिसकी तरफ न तो शासन का ध्यान है और न ही प्रशासन का। अनदेखी के कारण ऐतिहासिक महत्व रखने वाली यह इमारत आज खंडहर का रूप लेती जा रही है। आईये जानते हैं इसका इतिहास-
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नवाब फरीद ने अपनी बेटी की याद में बनवाया था चिमनी का रोजा
बदायूं। चिमनी का रोजा नवाब फरीद ने अपनी बेटी चिमनी बीबी की याद में बनवाया था। शाहजहां की बेगम मुमताज महल की बहन परवर खानम नवाब फरीद की पत्नी थी और उनकी बेटी थीं चमन आरा उर्फ चिमनी बीबी। यानी चिमनी बीबी मुमताज महल की भांजी थीं। (नीचे और पढ़ें)-
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कौन थे नवाब फरीद
बदायूं। नवाब फरीद के पिता का नाम कुतुबुद्दीन कोका था। कुतुबुद्दीन कोका बादशाह जहांगीर के दूधभाई व हजरत शेख सलीम चिश्ती के नवासे व विश्वविख्यात सूफी संत हजरत बाबा फरीदउद्दीन मसउदगंज शकर के वंशज थे। इनका जन्म सन 1591 ईसवी में बदायू के शेखूपुर कस्बे में हुआ था। बताते हैं कि जब इनकी आयु आठ वर्ष की थी तो इनके पिता की मृत्यु हो गयी। यह घटना 1599 ईसवी की है। इनके पिता की मृत्यु के बाद जहांगीर ने इन्हें अपने पास बुला लिया। इन्हें आगरा के किले में रखा गया और वहीं इनकी परवरिश हुई। सन 1612 ईसवी में इनका विवाह मुमताज महल की छोटी बहन बेगम परवर खानम के साथ हो गया। जहांगीर ने 1613 ईसवी में नवाब फरीद को बदायूं का सूबेदार नियुक्त किया और इन्हें बदायूं के शासन की देखभाल के लिए बदायूं भेज दिया गया। (नीचे और पढ़ें)-
बताते हैं कि साल 1618 में इन्होंने जहांगीर से एक किला बनवाने की गुजारिश की थी, जिसके बाद जहांगीर ने उन्हें करीब 4000 बीघा जमीन दे दी। यह जमीन शहर से तीन किमी. दूर मौजा फुलिया खेड़ा में स्थित थी। मुगलकाल में बदायूं को पुनः विशेष दर्जा दिया गया। सूबेदार नवाब फरीद ने जहांगीर द्वारा प्रदत्त भूमि पर सोत नदी के किनारे किले का निर्माण कराया। बादशाह जहांगीर के बचपन के नाम शेखू से इसका नाम शेखूपुरा रखा गया। (नीचे और पढ़ें)-
बताया जाता हं कि नवाब बदायूं छोड़कर पूरे खानदान के साथ इस किले में आबाद हो गये। अफगानों को हराने के बाद नवाब को मोहतिशवर खां के खिताब से नवाजा गया। शेखूपुर के किले की दीवार व दरवाजों का आज भी अस्तित्व है। इसी किले में नवाब फरीद ने एक मस्जिद, तालाब, कुआं और रोजे का निर्माण कराया। इतिहासकारों के अनुसार, नवाब फरीद की स्वयं की कब्र भी इसी किले में स्थित है। वर्तमान में किले का अस्तित्व तो केवल नाम मात्र का रह गया है लेकिन इनकी कब्र आज भी मीरा सराय की ओर जाने वाली सड़क के किनारे स्थित है। यह किला लगभग 1620 ईसवी में तैयार हुआ था। नवाब फरीद की मृत्यु 1658 ईसवी में पूना में हुई थी और वहां से इनके पार्थिव शरीर को बदायूं लाकर दफनाया गया था।
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मुगल वास्तुकला की झलक देता है रोजा
बदायूं। चिमनी का रोजा वर्तमान में जीर्णशीर्ण अवस्था में आ चुका है लेकिन किसी का ध्यान इस ओर नहीं है। रोजे की हालत भले ही कैसी हो लेकिन इसकी दीवारों को देखकर आज भी यह इमारत मुगल वास्तुकला का एक झलक प्रदान करती है। यह इमारत मुगलकालीन स्थापत्यशैली में बनी है। इस रोजे का गुंबद काफी ऊंचा है। हालांकि इस रोजे पर कोई अभिलेख उत्कीर्ण नहीं है। (नीचे और पढ़ें)-
आसपस के कुछ लोग कहते हैं कि करीब 50-60 साल पहले यह इमारत बहुत खूबसूरत थी क्योंकि इसमें खूबसूरत उकेराव, रंगीन टाइल और समीपवर्ती कुआं था, जिसमें नहाने और कपड़े बदलने के लिए एक छोटा सा अंडरग्राउंड कमरा था। बाद में किसी पड़ोसी किसान ने उसमें खाद के ढेर रख दिए और पूरी इमारत की सभी खूबसूरती नष्ट हो गई। अब इमारत के दिन गिनने लगे हैं। स्थानीय प्रशासन या राष्ट्रीय संग्रहालय या संस्कृति विभाग से कोई भी यहां नहीं आता। हालांकि, पास के कुछ लोग यहां आते हैं क्योंकि वे मानते हैं कि दफन किए गए व्यक्तियों से उनकी इच्छाएं पूरी हो सकती हैं। वर्तमान में मोहल्ले के साबिर आदि बगैर किसी आर्थिक मदद के जितनी हो सकती है इसकी देखभाल करते हैं। इसके अंदर लाइट भी अपना पैसा खर्च करके लगवाई गई हैं। (नीचे और पढ़ें)-
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चांद की 24 तारीख को होता है उर्स
बदायूं। मोहल्लावासी साबिर के अनुसार, हर साल चांद की 24 तारीख यानी ईद के 24वें दिन यहां एक दिन का उर्स होता है, जिसमें सारी रात कार्यक्रम होते हैं। काफी लोग यहां शिरकत करते हैं। रोजे के बाहर खाली पड़ी जगह पर उर्स का आयोजन किया जाता है। यदि किसी का इंतकाल हो जाता है तो इसी जकगह पर नमाज-ए-जनाजा का आयोजन होता है।
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2008 में कुछ ऐसा दिखता था रोजा