खास बातें-
वर्ष 1980 में बदायूं निवासी कांग्रेस के असरार अहमद ने जीती थी सीट
1984 में शेरवानी के जीतने के बाद सभी बाहरी प्रत्याशी ही जीते
बेलाडांडी के रहने वाले ओंकार सिंह तीन बार रहे सांसद
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बदायूं। आजादी के बाद वर्ष 1951 से बनी बदायूं लोकसभा सीट पर जहां शुरुआत में स्थानीय प्रत्याशियो का दबदबा रहा तो वहीं 1984 के बाद यहां कोई स्थानीय अपनी विजय पताका नहीं फहरा सका। 1984 में यहां से इलाहबाद के रहने वाले सलीम शेरवानी ने चुनाव जीता और उसके बाद ये सीट मानो बाहरी प्रत्याशियों के ही हवाले हो गई। तब से अब तक यहां से सब ‘बाहरी‘ चुनाव लड़े और जीतकर लोकसभा में पहुंचते रहे। हालांकि इस बीच कई बार जनता ने बाहरी प्रत्याशी होने के कारण विकास कार्य न होने का दुखड़ा भी रोया, लेकिन फिर भी हर बार बाहर के व्यक्ति को ही वोट देकर चुनाव जितवाया।
बदायूं लोकसभा सीट की बात करें तो सबसे पहले वर्ष 1951 में बदन सिंह यहां के सांसद बने। इसके बाद वर्ष 1957 में कांग्रेस के टिकट पर ही बाबू रघुवीर सहाय संसद पहुंचे। वर्ष 1962 में भारतीय जनसंघ ने कांग्रेस से यह सीट छीन ली और बेलाडांडी के रहने वाले ओंकार सिंह को जनता ने सांसद बनाकर भेजा। जनसंघ के प्रति जीवन भर समर्पण और क्षेत्र में प्रभाव का ही नतीजा था कि 1967 में जनता ने दोबारा ओंकार सिंह को जिताकर सांसद बनाया। 1971 में कांग्रेस को एक बार फिर यहां से जीत मिली और करन सिंह यादव सांसद चुने गए, लेकिन 1977 के चुनाव में ओंकार सिंह फिर से तीसरी बार सांसद बन गए। वर्ष 1980 में हुए चुनाव में बदायूं निवासी असरार अहमद को जनता ने जीत का सेहरा बंधवाया।
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वर्ष 1984 से शुरू हो गया बाहरी प्रत्याशी का आना
बदायूं। बदायूं लोकसभा सीट पर वर्ष 1951 से 1980 तक स्थानीय नेताओं का दबदबा रहा। 1980 में सांसद चुने गए असरार अहमद 1984 तक सांसद रहे। बस यही तक का समय था जब जनता ने स्थानीय प्रत्याशियों को चुना लेेकिन 1984 से यहां की जनता ने बाहर के लोगों पर तबज्जो देना शुरू कर दी। वर्ष 1984 के चुनाव में राजीव गांधी ने अपने मित्र और इलाहाबाद के उद्योगपति सलीम इकबाल शेरवानी पर भरोसा जताते हुए यहां से प्रत्याशी घोषित किया। इसी साल इंदिरा गांधी की हत्या हो गई और सहानुभूति लहर में शेरवानी बदायूं सीट से रिकॉर्ड मतों से विजयी हुए। वर्ष 1989 में बदायूं की जनता ने एक बार फिर बाहरी प्रत्याशी को अपनाया और जनता दल के नेता शरद यादव यहां से चुनाव जीतकर लोकसभा पहुंचे। वर्ष 1991 में हुए मध्यावधि चुनाव में राम मंदिर की लहर के बीच भाजपा के टिकट पर हिंदूवादी नेता स्वामी चिन्मयानंद ने चुनाव लड़ा और जीत गए।
वर्ष 1996 में सलीम शेरवानी ने कांग्रेस से नाता तोड़कर समाजवादी पार्टी का दामन थाम लिया और फिर यादव-मुस्लिम गठजोड़ के समीकरण से जीत का परचम लहराया। इसी गठजोड़ के बल पर उनकी जीत का यह सिलसिला लगातार तीन बार चला और शेरवानी 1998, 1999 और 2004 में लगातार सपा के टिकट पर चुनाव जीतते रहे। वर्ष 2009 में सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव ने जब मैनपुरी सीट से चुनाव लड़ने का फैसला किया तो उस वक्त मैनपुरी से सांसद और उनके भतीजे धर्मेंद्र यादव को सलीम शेरवानी का टिकट काटकर बदायूं सीट पर उतारा गया। धर्मेंद्र ने बहुत कड़े मुकाबले के बाद जीत हासिल की। इसके बाद 2014 के चुनाव में एक बार फिर धर्मेंद्र यादव को यहां से जीत मिली। 2019 में भाजपा की संघमित्रा मौर्य ने ये सीट कब्जा ली।
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एक नजरः अब तक के बदायूं लोकसभा क्षेत्र के सांसद
1951ः बदन सिंह, कांग्रेस
1957ः रघुवीर सहाय, कांग्रेस
1962ः ओंकार सिंह, भारतीय जनसंघ
1967ः ओंकार सिंह, भारतीय जनसंघ
1971ः करन सिंह यादव, कांग्रेस
1977ः ओंकार सिंह, भारतीय लोक दल
1980ः मो. असरार अहमद, कांग्रेस
1984ः सलीम इकबाल शेरवानी, कांग्रेस
1989ः शरद यादव, जनता दल
1991ः स्वामी चिन्मयानंद, भाजपा
1996ः सलीम शेरवानी, सपा
1998ः सलीम इकबाल शेरवानी, सपा
1999ः सलीम इकबाल शेरवानी, सपा
2004ः सलीम इकबाल शेरवानी, सपा
2009ः धर्मेंद्र यादव, सपा
2014ः धर्मेंद्र यादव, सपा
2019ः संघमित्रा मौय, भाजपा
2024ः ?
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स्थानीय प्रत्याशी की तरफ नहीं रहा जनता का रुझान
- ऐसा नहीं है कि इस दौरान स्थानीय नेताओं ने चुनाव मैदान में किस्मत नहीं आजमाई लेकिन यहां की जनता का रुझान हमेशा बाहरी उम्मीदवारों की तरफ रहा। स्थानीय प्रत्याशियों को हमशा दूसरे, तीसरे या फिर और नीचे के स्थानों पर ही संतोष करना पड़ा। इस बार भी सपा और कांग्रेस गठबंधन ने शिवपाल सिंह यादव को प्रत्याशी घोषित कर दिया है जबकि भाजपा ने अपने पत्ते अभी नहीं खोले है।