संडे स्टोरी-
बदायूं। मीरासराय से शेखूपुर जाने वाले रोड पर मखदूमन-ए- जहां का मकबरा स्थित है। मखदूमन सैयद वंश के अंतिम शासक अलाउद्दीन आलम शाह की मां थीं। आलमशाह की मृत्यु के बाद उन्हें भी यहीं दफन किया गया था।
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कौन था अलाउद्दीन आलम शाह
बदायूं। इतिहास की तह में जाएं तो अलाउद्दीन आलम शाह का सैयद वंश के अंतिम शासक के रूप में जिक्र मिलता है। अलाउद्दीन अपने पिता मुहम्मदशाह के बाद सन 1445 ईसवी में दिल्ली के सिंहासन पर बैठा था किन्तु आरामपसंद और विलासी प्रवृत्ति का होने के कारण 1450 ईसवी में मुल्तान के सूबेदार बहलोल लोदी को गद्दी सौंपकर स्वयं बदायूं आ गया था। यह भी बताया जाता है कि अलाउद्दीन का वजीर हमीद खान निरंतर अपनी ताकत बढ़ाता जा रहा था। 1447 में बहलोल लोदी ने दिल्ली पर आक्रमण किया और हमीद खां को अपनी तरफ मिला लिया। 1450 में बहलोल लोदी ने संपूर्ण शासन अपने कब्जे में ले लिया जिसके बाद अलाउद्दीन बदायूं आ गया था। इसके बाद अलाउद्दीन आलम शाह 1476 ईसवी में अपनी मृत्यु तक बदायूं पर राज करता रहा। सैयद वंश की समाप्ति कारण भी उसके अकुशल शासन को माना जाता है। उसके बाद लोदी वंश की शुरुआत हुई। (नीचे और पढे़ं) -
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मकबरे में किसकी हैं कब्रें
बदायूं। चामुंडा चौक से मीरा सराय की ओर जाने वाली सड़क के किनारे एक ऊंचे टीले पर एक मकबरे में आलमशाह की मां मखदूमन-ए-जहां की कब्र है। यह मकबरा इन्होंने अपनी मां के लिए बनवाया था। आलमशाह की मृत्यु के बाद उन्हें भी यही दफन किया गया। इस मकबरे में पांच कब्रे बनी हैं। इसमें पहली अलाउद्दीन आलम शाह की मां मखदूमन जहां की, दूसरी सुल्तान अलाउद्दीन आलम शाह की, तीसरी अलाउद्दीन की पत्नी की, चौथी सुल्तान की बेटी शाहजादी हसीन की और पांचवी सुल्तान की दूसरी बेटी साजदा खातून की कब्र बताई जाती है। इस मकबरे पर फारसी भाषा में अभिलेख है, जिसमें लिखा है कि यह इमारत सैयद मखदूमन-ए-जहां के लिए बनवायी गयी है।
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ये रहे सैयद वंश के शासक और उनका शासन
सैयद खिज्र खां ( 1414- 1421 ईसवी )
मुबारक शाह ( 1421- 1434 ईसवी )
मुहम्मद शाह ( 1434-1443 ईसवी )
अलाउद्दी आलमशाह ( 1443- 1451 ईसवी )
इसके बाद 1451 ईसवी को दिल्ली सल्तनत की गद्दी पर बहलोल लोदी बैठा और लोदी वंश (1451- 1489 ईसवी ) की स्थापना की।
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आसपास हो चुके हैं कब्जे, पुरातत्व विभाग का ध्यान नहीं
बदायूं। यह मकबरा पुरातत्व विभाग के अधीन है लेकिन विभाग समेत प्रशासन का ध्यान इस तरफ नहीं है। यहां पुरातत्व विभाग का बोर्ड तो बाहर लगा है लेकिन उसके साथ ही चारों तरफ अतिक्रमण भी हो रहा है। कई लोगों ने आसपास भवन व इमारतें बनवा ली हैं, जिनका उपयोग व्यावसायिक तरीके से हो रहा है। मकबरे की निशुल्क देखभाल करने वाले बाबू भाई बताते हैं कि वह यहां बिना किसी तनख्वाह के मकबरे की देखभाल करते हैं। कहते हैं कि उन्हें दो बार अटैक पड़ चुका है लेकिन इबादत ने उनकी जान हर बार बचा ली।