बदायूं। विगत 13 अप्रैल को प्रकाशित 'सब की बात' की ये खबर पढ़िए ( नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करके) जिसमें हमें तो भाजपा की अंदरूनी कलह, गुटबाजी और भितरघात का अंदाजा हो गया था लेकिन भाजपा प्रत्याशी शायद इसका अंदाजा नहीं लगा पाए। या यूं कहें कि अति आत्मविश्वास के चलते अंदाजा लगाना जरूरी ही नहीं समझा। यही वजह रही कि भाजपा को बदायूं में हार का सामना करना पड़ा।
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भाजपाः आसान नहीं होगी जीत की राह... अपने ही अटका रहे 'रोड़े'
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आइये जानते हैं कि आखिर किस 'दशानन' यानी दस कारणों ने भाजपा का विजय रथ रोक लिया।
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1- ओवर कॉन्फिडेंस
- सबसे पहला कारण तो ओवर कॉन्फिडेंस का ही रहा। मोदी और योगी के नाम के सहारे जीत की आस लगाये बैठी भाजपा और भाजपा प्रत्याशी जनता का रुख ही नहीं समझ पाए। प्रत्याशी ने न तो जनता से संवाद करने की जरूरत समझी और न ही उनकी समस्याओं के निराकरण का आश्वासन देने की। पूर्व सांसद द्वारा की गई कमियों को पूरा करने में भी वह मुगालता पाले रहे क्योंकि पूर्व सांसद संघमित्रा उन्हें पूरे चुनाव प्रचार में उनके साथ लगी रहीं।
2- टिकट वितरण
- मोदी और योगी को जीत की गारंटी मानने के बाद भाजपा में टिकट के दावेदारों की लंबी लाइन पहले से लगती रही है। ऐसे में जिसे टिकट नहीं मिला, उसने न तो चुनाव लड़वाने में रुचि दिखाई और न ही प्रत्याशी का साथ देने में। टिकट की चाह रखने वालों के मन में कहीं न कहीं यह टीस जरूर रही और इस टीस ने उन्हें भाजपा के साथ काम नहीं करने दिया। ये बात जरूर है कि दिखावे के लिए वह जरूर साथ रहे।
3- पार्टी के 'विभीषण'
- दुर्विजय सिंह शाक्य का टिकट फाइनल होते ही उन नेताओं पर तो गाज गिरी ही जो खुद का टिकट पाने की आस लगाए थे, साथ ही उन नेताओं व पदाधिकारियों पर भी बज्रपात हुआ जो खुद के लिए नहीं बल्कि अपने किसी खास के लिए टिकट चाहते थे। ऐसे लोगों ने विभीषण की भूमिका निभाते हुए प्रत्याशी की हार में भी अपनी भूमिका निभाई। सूत्रों की मानें तो पार्टी के एक वरिष्ठ पदाधिकारी नहीं चाहते थे कि दुर्विजय शाक्य यहां से चुनाव जीतें। इसके पीछे कारण बताया जा रहा है कि कभी क्षेत्रीय अध्यक्ष के रूप में दुर्विजय शाक्य भी नहीं चाहते थे कि इन पदाधिकारी को वह ओहदा हासिल हो, जिस पर वह आज हैं। इसके अलावा यह पदाधिकारी एक स्थानीय नेता को यहां से टिकट दिलाने की जुगत में थे, लेकिन हाईकमान स्तर से बात नहीं बनी। इन पदाधिकारी के साथ एक बड़े स्तर के नेता भी थे जो उस स्थानीय नेता को टिकट दिलाना चाहते थे।
4- हम पर 'राज'...वो भला कैसे
- पार्टी के कुछ अन्य पदाधिकारी व जनप्रतिनिधि नहीं चाहते थे कि कोई बाहर का व्यक्ति आकर उन पर ’राज’ करे। ये पदाधिकारी व नेता जानते थे कि यदि दुर्विजय चुनाव जीतते हैं तो कई की राजनीति यहां से खत्म हो जाएगी। क्योंकि दुर्विजय संघ के आदमी होने के कारण पार्टी के क्षेत्रीय अध्यक्ष भी हैं। ऐसे में ये विरोधी अंदर ही अंदर उनकी काट करने में लगे रहे।
5- बाहरियों पर भरोसा
- भाजपा प्रत्याशी का चुनाव लड़ाने वाली टीम में बरेली के लोग ज्यादा शामिल थे। चूंकि प्रत्याशी बरेली के रहने वाले थे, ऐसे में बरेली के लोग बदायूं की जनता का रुख भांप पाने में असफल रहे। टीम में शामिल ये लोग प्रत्याशी को अपनी ही तरह नचाते रहे और प्रत्याशी भी उनके इशारों पर ऐसे नाचते रहे जैसे ये बाहरी ही उन्हें जिता देंगे। ऐसे में जनता के मन में सवाल ये आया कि प्रत्याशी जीत गए तो उसका फायदा बदायूं की जनता को कम बल्कि बरेली के लोग ज्यादा उठाऐंगे।
6- स्थानीय बनाम बाहरी का 'धोखा'
- भाजपा प्रत्याशी शुरू से ही खुद को बदायूं वाला कहकर जनता को बरगलाने का प्रयास करते रहे लेकिन लोग यह कहते सुने गए कि केवल जन्म लेने भर से कोई स्थानीय नहीं हो जाता। दुर्विजय सिंह बरेली के रहने वाले हैं तथा उनकी कर्मभूमि भी बरेली है। ऐसे में उनका खुद को स्थानीय कहना भी जनता के बीच मजाक का विषय बन गया।
7- अंदर से कुछ और, 'मुखौटा' किसी और का
- चुनाव के दौरान तमाम ऐसे सपा नेता मौका देखकर भाजपा में शामिल हो गए जिनकी पहचान या तो कट्टर सपाई के रूप में या फिर मौकापरस्तों के रूप में होती हैं। भाजपा की जीत सुनिश्चित मानकर इन लोगों ने भाजपा का मुखौटा तो पहन लिया लेकिन अंदर से ये सपाई ही रहे।
8- पुराने कार्यकर्ताओं की उपेक्षा
- दुर्विजय सिंह शाक्य भले ही पार्टी के क्षेत्रीय अध्यक्ष रहे हों लेकिन पूरे चुनाव वह जिले की राजनीति से अच्छी तरह वाकिफ नहीं दिखे। और तो और वह अपनी ही पार्टी के नेताओं का रुख नहीं समझ सके कि उनके साथ अंदर ही अंदर विश्वासघात हो रहा है। इसी बीच पार्टी के कुछ ऐसे नेताओं तथा कार्यकर्ताओं की उपेक्षा भी हुई जो पार्टी से जमीनी स्तर से जुड़े हैं। पार्टी में वजीरगंज के चर्चित राहुल वार्ष्णेय को वजीरगंज जाकर पार्टी में शामिल कराना भी प्रत्याशी पर भारी पड़ गया जबकि सभी जानते हैं कि राहुल ने निकाय चुनाव में खुलकर पार्टी की मुखालफत की थी।
9- विकास का बखान, स्थानीय समस्याएं गौण
- भाजपा प्रत्याशी ने भ्रमण के दौरान राजनीति पर ज्यादा चर्चा की तो भाजपा द्वारा कराए गए विकास कार्यों का भी जमकर गुणगान किया, लेकिन उन स्थानीय समस्याओं का उन्होंने जिक्र तक नहीं किया जिनके निराकरण की मांग जनता लंबे समय से करती आ रही है। दस सालों से विकास कार्यों का गुणगान सुनती आ रही जनता के कान भी इसे सुन सुनकर पक गए हैं। जनता को स्थानीय समस्याओं का निराकरण चाहिए था, जिसका आश्वासन देने में भाजपा प्रत्याशी नाकाम साबित हुए।
10- शिवपाल की रणनीति
- भाजपा अंत तक सपा की रणनीति समझ ही नहीं पाई। सहसवान और गुन्नौर को सपा का अभेद किला यूं ही नहंी कहा जाता। चुनाव के अंत में सपा नेता शिवपाल सिंह यादव भले ही जिले में न रहे हों लेकिन सहसवान और गुन्नौर में उन्होंने सपा का किला ऐसे मजबूत किया कि अंत में उससे ही भाजपा को हार का सामना करना पड़ा। यही दो विधानसभाएं रहीं जहां सपा को खासी बढ़त मिली और वही सपा की जीत का कारण रहीं। चर्चा तो यह भी रहीं कि गुन्नौर के एक भाजपा नेता ने कथित या फर्जी तरीके से अपनी हड्डी तक केवल इसलिए तुड़वा ली कि उन्हें भाजपा का प्रचार न करना पड़े। ऐसे में अंदर ही अंदर वे सपा को लड़ाते रहे।
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अब पछताए होत क्या, जब....
- अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत। इस कहावत पर अब भाजपा अब फिट बैठ रही है। अब हार के बाद समीक्षा की जा रही है कि इसका कारण क्या रहा। हालांकि यदि सही से समीक्षा हुई तो बड़े पदाधिकारियों और नेताओं के नाम भितरघातियों की सूची में दिखाई दे सकते हैं। माना जा रहा है कि आने वाले समय में उन पर किसी न किसी रूप में गाज भी गिर सकती है। अब यह कुर्सी छिनने के रूप में हो या फिर पद अथवा दायित्व छिनने के, यह कहना अभी मुश्किल है।
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तो क्या इस बार मंत्रिमंडल में शामिल नहीं होंगे वर्मा !
- सूत्रों का कहना है कि केंद्रीय राज्यमंत्री और लोधी नेता बीएल वर्मा को इस बार मंत्रिमंडल में शामिल नहीं किया जाएगा। इसके पीछे बदायूं में भाजपा की शर्मनाक हार को कारण बताया जा रहा है। चर्चा तो यहां तक है कि उन्होंने भाजपा प्रत्याशी को सही से चुनाव नहीं लड़वाया और पूरे चुनाव उदासीन बने रहे। पूर्व मुख्यमंत्री स्वर्गीय कल्याण सिंह के खास माने जाने वाले वर्मा कल्याण सिंह के बेटे और एटा से सांसद रहे राजवीर सिंह की भी सीट नहीं बचा पाए।